नई दिल्ली। अफगानिस्तान की शांति को लेकर अमेरिका-तालिबान के बीच होने वाले समझौते पर भारत समेत कुछ दूसरे देशों की भी निगाहें लगी हुई हैं। इस समझौते को लेकर भारत की अपनी चिंताएं हैं। लेकिन इस समझौते को लेकर सबसे बड़ी चिंता अफगानिस्तान की महिलाओं को है। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्होंने तालिबान के उस दौर को करीब से देखा है जो आज भी उनके मन में भविष्य को लेकर भय पैदा कर रहा है। 1996-2001 के बीच अफगानिस्तान में तालिबान की हुकूमत थी। तालिबान की हुकूमत में अफगानिस्तान का नाम इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान था। 1990 में अफगानिस्तान से सोवियत संघ की सेनाओं की वापसी तक तालिबान एक बड़ा आतंकी संंगठन बन चुका था। सोवियत रूस के यहां से जाने के बाद वह लगातार अपने पांव यहां पर पसारता रहा। 1996 से पहले ही उसने करीब दो तिहाई से भी अधिक क्षेत्र पर कब्जा कर लिया था। इसके बाद काबुल भी उसकी पहुंच में आ गया।अ अफगानिस्तान की तालिबान सरकार को जिन दो देशों ने मान्यता दी थी उसमें केवल कतर और पाकिस्तान शामिल था। कतर में ही तालिबान का राजनीतिक कार्यालय भी है जो आज भी बादस्तूर काम करता है। तालिबान को पाकिस्तान से हर संभव मदद मिलती रही है। इसमें आर्थिक और रणनीतिक मदद भी शामिल रही है।
तालिबान की हुकूमत में अफगानिस्तान का नाम इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान था। 1990 में अफगानिस्तान से सोवियत संघ की सेनाओं की वापसी तक तालिबान एक बड़ा आतंकी संंगठन बन चुका था। सोवियत रूस के यहां से जाने के बाद वह लगातार अपने पांव यहां पर पसारता रहा। 1996 से पहले ही उसने करीब दो तिहाई से भी अधिक क्षेत्र पर कब्जा कर लिया था। इसके बाद काबुल भी उसकी पहुंच में आ गया।अ अफगानिस्तान की तालिबान सरकार को जिन दो देशों ने मान्यता दी थी उसमें केवल कतर और पाकिस्तान शामिल था। कतर में ही तालिबान का राजनीतिक कार्यालय भी है जो आज भी बादस्तूर काम करता है। तालिबान को पाकिस्तान से हर संभव मदद मिलती रही है। इसमें आर्थिक और रणनीतिक मदद भी शामिल रही है।
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